ख्वाब
रक्खे थे दुछत्तीयों पे,
अलमारियों में, अटाले जैसे
कुछ टूटे
कुछ बिखरे
कुछ को जालों ने,
जमी धूल ने
सहेजे रक्खा है अबतक
हर रात चमकते हैं जुगनू की तरह
वो कुछ एक जो देखे थे
जागते भीड़ में, कोलाहल में
लापरवाह से भटकते रहते है
रास्तों की तलाश में
कोई मोड़ ऐसा हो
नया मोड़ दे दे,
जिंदगी को
कुछ तो
बस छूट ही गये कहीं
ना जाने किस गली, किस मोहल्ले
कोई अनजाना मिला
और खो गया जैसे
काश कोई पेशा होता
इन्हे देखने का भी
कमाई खूब होती अपनी
अक्सर सोचता हूँ
कुछ एक-आध ही सही
सच भी होते कभी
तो तसल्ली होती
वरन फ़िज़ूल ही तो है
इन्हे देखना, जूझना, जीना
और फिर बस...
भूला देना
अभी इन दिनों
'प्रेमालय' बनाने की सोची है
मुकाम हो कहीं एक इनका भी
लिख दिया है
कि सुना है कई बार
लिख देने से मुक़ामाल हो जाता है
3 comments:
वाह
एकदम सही कही !
Second last para "dil ko chu gaye yaar"...!
Khwaab hi hain jo haunslon ko zinda rakhte hain...
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