हर वो मकान याद है,
जिसे हमने घर बनाया था
जिसे हमने घर बनाया था
दीवारों में जब बस जाए परिवार, जीवन
उसे ही घर कहते हैं न ?
बड़ी बारीकी से टंटोला था,
हर बार खाली करते समय
कहीं कुछ रह न जायें, छूट न जाये
पर फिर भी रह गया; कुछ न कुछ;
नहीं बल्कि बहुत कुछ
सामान वगैरह तो ज्यादा नहीं
पर वो जिंदगी जो हमने जी थी वहाँ
लम्हे हंसी-ठिठोलियों के, ख़ुशी के
वो संघर्ष जो लड़ते रहे,
या गम जो बाँट लिए
वो सपने अधूरेवाले
आज भी पड़े होंगे कहीं;
अलमारियों के कोने में
वो कील जो लगा दी थी दीवालों पे हमने,
उन्हें अपना सा समझकर
वो खिड़कियां, नज़ारे
वो बीत मौसम, सुबह शाम
इन्ही में कहीं कोई
जो छोड़ गया साथ
मुरझा गया था वो घर भी मकान होकर
छूट ही तो गया न सब
न जाने कितने ही मकान
राह तकते होंगे हमारी,
कोई आये थोड़ा जीवन मिले
फिर से ये चार दीवारी घर बने
7 comments:
Good one Prakash... After such a long time...
Jz loved it.....
समय के कुछ पल चिपक जाते हैं दीवारों के साथ ... यादें सताती हैं उनकी ...
bahut hi khoobsurati se gadha hai..
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति मन को छू लेने वाले उद्गारों को बड़ी खूबसूरती से शब्दों का बाना पहनाया है आपने ... अति सुन्दर !
अच्छी लगी। :)
घर बनना इतना आसान नहीं होता ... दिल डालना होता है ... बहुत खूब लिखा है ...
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