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Friday, November 25, 2016

मुश्किल ये है की, खुल कर बात होती नहीं ..

हम सब न जाने कितनी ही कहानियां, अनुभव, दर्द , चिंताएं आदि लिया फिरते हैं। जिसे किसीसे बांटना चाहते हैं, बताना चाहते हैं।  पर किसे? हर बात हर किसीसे तो नहीं कही जाती न ? आप कहेंगे किसी अपने से, पर अपने-अपनों में भी नाना प्रकार के भाव निकलते हैं (क्या सोचेंगे, क्या समझेंगे, क्रोधित होंगे, वगेरह वगेरह) । इसी चक्कर में एक भोज बढ़ता जाता है जिससे एक तरह का डिप्रेशन भी जन्म लेता है। 

जापान में तो अकेलापन इस कदर हावी हुवा की हर कोई ग्रस्त है। एक युवा (Takanobu Nishimoto) ने इस समस्या का समाधान निकाला और बाकायदा एक व्यवसाय बना डाला (Ossan - Rent men), इनके सदस्य आपको बड़ी आत्मीयता से सुनते हैं, इनसे आप कुछ भी बात कर सकते है, कह सकते हैं, बिना किसी जिझक और चिंता के। बदले में इन्हें एक घंटे का लगभग एक डॉलर प्राप्त होता है।  भारत में ये सुविधा मैं सुरु करना चाहूंगा, कृपया संपर्क करें:-) कुंवारी कन्याओं के लिए विशेष छूट :-). 

चलिए कविता पढिये और खुल कर बतियाना शुरू कर दीजिये बस ..     


हर किसी के मन में 
है इक पिटारा भरा हुवा  
मुश्किल ये है की  
खुल कर बात होती नहीं 

किसे है वक़्त फुरसत वाला 
कहाँ धीरज ही है सुनने की, 
समझने की 
जैसी चाहिए वैसी 
मुलाक़ात होती नहीं 
मुश्किल ये है की, 
खुल कर बात होती नहीं ..   

इक झिझक सी हैं कहीं 
कहने में, बताने में 
क्या सवाल होंगे
क्या सोचेंगे, क्या समझेंगे 
क्या प्रतिक्रिया होगी 
झुंझलाहट ये 
समाप्त होती नहीं 
मुश्किल ये है की, 
खुल कर बात होती नहीं ..   

डर भी है बना
हर पर्सनल वाली बात पर  
कहीं ये बातों-बातों में 
फैलेगी तो नहीं 
इस भरोसे के कहीं 
कागजात होते नहीं 
मुश्किल ये है की, 
खुल कर बात होती नहीं ..   

और वो बिन मांगे मिलनेवाली 
सलाह हर बात में 
हर बात के अनुपात में
किसी भी विषय में क्यों हम  
अज्ञात होते नहीं ?
मुश्किल ये है की, 
खुल कर बात होती नहीं ..   

Saturday, September 3, 2016

पोर्टरेट ऑफ किरायेदार


हर वो मकान याद है, 
जिसे हमने घर बनाया था
दीवारों में जब बस जाए परिवार, जीवन  
उसे ही घर कहते हैं न ? 

बड़ी बारीकी से टंटोला था, 
हर बार खाली करते समय 
कहीं कुछ रह न जायें, छूट न जाये 
पर फिर भी रह गया; कुछ न कुछ; 
नहीं बल्कि बहुत कुछ

सामान वगैरह तो ज्यादा नहीं 
पर वो जिंदगी जो हमने जी थी वहाँ  
लम्हे हंसी-ठिठोलियों के, ख़ुशी के 
वो संघर्ष जो लड़ते रहे, 
या गम जो बाँट लिए 

वो सपने अधूरेवाले 
आज भी पड़े होंगे कहीं; 
अलमारियों के कोने में  
वो कील जो लगा दी थी दीवालों पे हमने, 
उन्हें अपना सा समझकर   
वो खिड़कियां, नज़ारे
वो बीत मौसम, सुबह शाम 

इन्ही में कहीं कोई 
जो छोड़ गया साथ 
मुरझा गया था वो घर भी मकान होकर 
छूट ही तो गया न सब 

न जाने कितने ही मकान 
राह तकते होंगे हमारी, 
कोई आये थोड़ा जीवन मिले 
फिर से ये चार दीवारी घर बने 


   








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