अखबार छपते ही हैं अब तो रद्दिवालों के लिए
सच्चाई लुप्त होती जा रही पढ़नेवालों के लिए
एक वक़्त था जब हर सुबह रहता था इंतज़ार
अब मंगवाते हैं आदतन; रश्म निभाने के लिए
कागज़ भी बेहतर हुवा, छपाई अब रंगीन
क्या बस यही काफी हे बेहतर बनाने के लिए?
सम्पादकीय असर में डूबे, लेखों में कसीदे
पत्रकारिता स्तरहीन पहला बन पाने के लिए
समाचारों में विज्ञापन या विज्ञापनों में समाचार
टंटोलना पड़ता है हर कोना समझ पाने के लिए
'प्रैस' कहलाना औहदा बना, कहीं बना व्यवसाय
कहीं जरिया जनता को, गुमराह बनने के लिए
माना कुछ होंगे शायद आज भी सच्चे-ईमानदार
दौर मुश्किल बड़ा इस राह चलनेवालों के लिए
अखबार छपते ही हैं अब तो रद्दिवालों के लिए...
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श्री नवीन सर के एक फेसबुक स्टेटस से ये विचार आया/ उठाया और आगे जो हुवा वो आपके सामने प्रस्तुत :-)
10 comments:
बहुत खूब लिखा है, वाह!
ब्लास्फेमस ऐस्थीट
Wonderful.....
u r d best...!! as always...!!
i agree 2 d point dat now news pprs dn't attract me !!
Awesome Darling........Classic Thought......bhai...outstanding.....
Such a prakash thing......Bau j jordar..... Hu aavi j koi rah joto hato...k tame alag kathan lakho....majja padi gai....bhai......
A pleasure to read Hindi poetry. You are right Prakash, journalism is now business. And the moral of the market is to make money. Paid stories, fake stings, biased views .....akhbar sach mein hai raddiwalon ke liye.
Sadly it is true. It has lost its charm. Now it has more masala than wise words.
उत्तम रचना..अखबार के ऊपर कुछ पंक्तियां मुझे भी याद आ रही हैं उन्हें आपसे साझा करना चाहुंगा-
"कागज पर रखकर, रोटियाँ खायें भी तो खांये कैसे..खून से लिपटा आता है अखबार आजकल"
बहुत सटीक
आज के अखबारों की सच्चाई यही है कि विज्ञापन की खबरें हैं या खबरों का विज्ञापन ....
आज के अखबारों की सच्चाई यही है कि विज्ञापन की खबरें हैं या खबरों का विज्ञापन ....
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