अखबार छपते ही हैं अब तो रद्दिवालों के लिए
सच्चाई लुप्त होती जा रही पढ़नेवालों के लिए
एक वक़्त था जब हर सुबह रहता था इंतज़ार
अब मंगवाते हैं आदतन; रश्म निभाने के लिए
कागज़ भी बेहतर हुवा, छपाई अब रंगीन
क्या बस यही काफी हे बेहतर बनाने के लिए?
सम्पादकीय असर में डूबे, लेखों में कसीदे
पत्रकारिता स्तरहीन पहला बन पाने के लिए
समाचारों में विज्ञापन या विज्ञापनों में समाचार
टंटोलना पड़ता है हर कोना समझ पाने के लिए
'प्रैस' कहलाना औहदा बना, कहीं बना व्यवसाय
कहीं जरिया जनता को, गुमराह बनने के लिए
माना कुछ होंगे शायद आज भी सच्चे-ईमानदार
दौर मुश्किल बड़ा इस राह चलनेवालों के लिए
अखबार छपते ही हैं अब तो रद्दिवालों के लिए...
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श्री नवीन सर के एक फेसबुक स्टेटस से ये विचार आया/ उठाया और आगे जो हुवा वो आपके सामने प्रस्तुत :-)