कवितायेँ जो लिख देते हैं तुम पे
चलते- फिरते,सोते- जागते
पड़ी रहती हैं, अक्सर
डायरी- नोटपैड के पन्नों पे
कुछ मोबाइलिया बनी
त्वरित संदेशों में,
कुछ कहीं किताबों के बीच
अकेली, गुमसुम
तो कुछ अस्त-व्यस्त, बेसहारा
कुछ तो बस खो ही गयी,
उन्हें याद कर पाना भी मुश्किल है
हर अनुभव, हर ख्याल तुम्हारा ही तो है
बस शब्द मेरे हैं टूटे-फूटे
तुम्हे अच्छे लगते हैं न, शायद
चित्रकार होते
तो बात अलग होती जरा
कतारें लग जाती तुम्हारी तस्वीरों की
हर इक अदा को रंग देते,
हमारे रंगों से
केनवास इतराता खुद पर
एक संग्रहालय बनाना पड़ता
इन निशब्द मगर
बोलती तस्वीरों को रखने
सहेजने खातिर
माना इस कला से दूर हैं
पर क्या ये सच नहीं
मेरे शब्द बना ही तो देते हैं, एक तस्वीर
हर बार, हर कविता में
क्या ये नहीं,
कलम की चित्रकारी ?