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Monday, September 2, 2013

गरीब - अमीर














कहीं तन पे नहीं कपडे, 
कहीं कपड़ों में खुला तन  है 
पहला निर्धन कहलाता 
दूजे पे हावी फैशन है 

भिक्षुक ये भी, भिक्षुक वो भी है 
ये देवालयों के बाहर, और वो अन्दर 
ये मांगता भीख, देता दुवाएँ 
वो प्रार्थनाओं में रखता दान-धन है 

है दोनों बेसहारा, दीन 
ये धन से, वो मन  से 
इसे पेट की चिंता है 
और उसे पेट से ही (औलादों) चिंतन है   

सपने देखते हैं दोनों एक से
सुख के, सम्पति के, सम्मान के 
पर इन्हें पाने में अक्सर 
करते गलत रास्तों का चयन है 

काश ! ऐसा हो पाता कभी 
आचार मिलते विचारों से  
होते सब समान, एक से 
सोचें तो होता काफी मन-मंथन है...   

कहीं तन पे नहीं कपडे......



11 comments:

मेरा मन पंछी सा said...

वास्तविता है आज के दौर पर
सटीक रचना..
बेहतरीन..
:-)

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बहुत बढ़िया उम्दा प्रस्तुति,,,
RECENT POST : फूल बिछा न सको

Satish Saxena said...

यथार्थ है ..
काश !

Pratiksha said...

Good one...

Pratiksha said...

Specially the lines "ye maangta bhikh deta duaein, wo prarthnao mein rakhta daan dhan hai" really thoughtful....

Jyoti Mishra said...

startling paradoxes..
and they are so common in so many ways..

Lovely read prakash !!

वीना श्रीवास्तव said...

यही सच है कहीं तन ढकने के लिए कपड़ा नहीं तो कही लगता है कपड़ों से परहेज है...दोनों ही हालातों में स्थिति एक जैसी है...
सच को अभिव्यक्त करती रचना...

Blasphemous Aesthete said...

Beautiful and poignant!

बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं !

Blasphemous Aesthete

Vishwa said...

Very truely said.. khub saras...

दिगम्बर नासवा said...

शायद इसी को किस्मत कहते हैं ...
पर रस्ते ठीक होने जरूरी हैं कुछ पाने को ...

कौशल लाल said...

बहुत सटीक, सुन्दर....

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