धागे ख्यालों के,
उलझे-उलझे से
कई गाँठें भी बन चुकी है इनमें
कुछ जानें
कुछ अनजानें सुलझाते- सुलझाते
गाँठें
क्रोध की, नफरतों की
रुढियों की, भ्रांतियों की
अजीबोगरीब आस्थाओं की
सुलझानें का हर प्रयास
और उलझनें जैसा है
एक नुकीली सुई सी
हमेशा चुभती है
जिसे सिर्फ महसूस किया जाता है
छोर लम्बा बड़ा
मिलता नहीं इन धागों का
न ही छिद्र मिले इस सुई का
ख्यालों की ये उलझन शायद,
ज़िन्दगी के सुलझने,
और उसे समझनें
और उसे समझनें
के लिए जरुरी है...