पैसे पेड़ों पे उगते जो
कितनी खुशहाली होती
कितनी खुशहाली होती
हर सख्स बनाता बगीचे
हर तरफ हरियाली होती
ना महंगाई पे दुःख होता
ना कम आमदनी का रोना
लोग रहते भी इन पेड़ो पे
जंगल भरता हर कोना
गरीब कहीं ना ढूंढे मिलते
अमीर बनता हर जन-मन
न घोटाले, न भ्रष्टाचार
न काला होता गोरा धन
पर इसमें भी ये नेता
अपना लोहा मनवाते
अन्न उगाने पर प्रतिबन्ध
पैसों के पेड़ लगवाते
विदेशी निवेश फिर इन
बगीचों में भी मंगवाते
बाकि इनमे जो रहते शेष
वो तश्करी कर कमाते
बातें आज जो होती हैं
तब भी यूँ ही होती
पर, पैसे पेड़ों पे उगते जो
शायद खुशहाली होती....