इस कविता का विषय एवं विचार ब्लॉग मित्र ज्योति मिश्रा जी से मिला , और अगर ये भाव आपको पसंद आते हैं तो उसका पूरा श्रेय उनका भी होगा.
कविता की शैली गुलज़ार साहब की एक नज्मों की किताब से प्रेरित है "पुखराज", जिसमे उन्होंने पोर्ट्रेट प्रस्तुत किये हैं , अब ये अलग सा विषय और विचार आपके सन्मुख प्रस्तुत है ....
दिनभर मेहनत करता हूँ
रक्त-पसीना बहाता हूँ
कविता की शैली गुलज़ार साहब की एक नज्मों की किताब से प्रेरित है "पुखराज", जिसमे उन्होंने पोर्ट्रेट प्रस्तुत किये हैं , अब ये अलग सा विषय और विचार आपके सन्मुख प्रस्तुत है ....
दिनभर मेहनत करता हूँ
रक्त-पसीना बहाता हूँ
शाम हुए तो जीने को
चंद रुपये ही बस पाता हूँ
हर सुबह चुनौती रहती है
एक काम नया पाने की
किसी ठेकेदार के चुनने की
किसी सेठ के बुलाने की
घर मेरा चलता फिरता
बीवी और साथ में बच्चे हैं
जिस जगह जहाँ भी काम मिला
डेरा डाल रह लेते हैं
दिन भर वे भी साथ मेरे
मेहनत मजदूरी करते हैं
तब जाकर शाम निकलती है
रास्तों पर रात सो लेते हैं
उन चंद रुपयों से बस
उस दिन का गुज़ारा होता है
आटा-चावल, तेल-तरकारी
उस दिन ख़रीदे बनता है
कभी-कभी जब काम नहीं
बस पानी पीकर सो जाते हैं
बच्चे भूखे रोते-चिल्लाते
हम आंसू में रक्त बहाते हैं
ज़िन्दगी सपने मेरे भी है
अक्सर देखा करता हूँ
घर अपना हो, बच्चे पढ़ लें
ऐसा सोचा करता हूँ
फिर एक सुबह जब होती है
डरा-डरा सा रहता हूँ
आज भी काम मिलेगा मुझको
इस आस में जिंदा रहता हूँ......
Theme and Image Suggestion by: Ms.Jyoti Mishra
Theme and Image Suggestion by: Ms.Jyoti Mishra