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Monday, December 5, 2011

ख़त्म होते जंगल....

ये ऊँची-ऊँची इमारतें, 
ये ईंट-पत्थर की दुनिया, दिखावा-आडम्बर
फैलता हूवा मानवीय प्रकोप और 
ख़त्म होते जंगल....

वो वहां, एक बड़ा सा वाहन
भारी लदा जा रहा है 

शीशम रो रहा है 
बरगद कराह रहा है 
बबुल कहीं कोने में सिकुड़ रहा है 
चन्दन सुगध भुला, छटपटा रहा है 

इकठ्ठे हुवे ये आज
सर कटे, मुर्छित से 
अलग-अलग जंगलों से 
इनके कुछ बचे साथियों में 
मातम सा छाया है 
सहमे हुवे से हैं, 
अपने भविष्य के ख्याल से  

एक दुनिया बसती थी इन सब पर 
पंछियों के घोंसले, 
उनमे नन्हे बच्चे 
कितने ही जीव-जंतुओं का डेरा था 
कई सारे पशु भी आश्रित थे 

कमबख्त कोस रहे है आज 
उस एहसान फरामोश को, मनुष्य को 
बद-दुवाएं दे रहे हैं 
वह मनुष्य, की जो इन्हें बस,
काटता ही जा रहा है 
समृधि के नशे में 


भूल गया है 
की उसके जीने के लिए 
इनका जीना जरुरी है 
सांस लेनी हो तो 
हवा का होना जरुरी है  


Theme suggested by: Kamaljit Sindha 


14 comments:

सदा said...

सांस लेना हो तो

हवा का होनाश्‍ जरूरी है

बिल्‍कुल सही कहा है आपने ... आभार ।

Keyur said...

Truly said ................

दिगम्बर नासवा said...

सच कहा है प्रकाश जी ... और इन सब के लिए इंसान ही जिम्मेदार है ... काश वो जाग जाए ... लाजवाब रचना है आपके ...

Pratiksha said...

Very true. Nice one. Good work.

रश्मि प्रभा... said...

मूल भाव यही है की जीने के लिए हवा की ज़रूरत है ...पर सब अधर में टंगे जा रहे ...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

इन सबके लिए इंसान जिम्मेदार है,...अच्छा प्यास बधाई,...
मेरे नए पोस्ट पर आइये,...

संजय भास्‍कर said...

So true very nice work parkash bhai !!

Amrita Tanmay said...

सिर्फ ऐशो आराम को ही तो सोचना है ,हवा को किसको पड़ी है ?

Always Unlucky said...

Just desired to comment and say which i genuinely like your weblog structure plus the way in which you create too. It’s very refreshing to see a blogger like you.. keep it up…

From Computer Addict

Monika Jain said...

hriday sparshi rachna..

प्रतुल वशिष्ठ said...

@ प्रकाश जैन जी,

भूख समाप्त होने के बाद जबरन खाना अपराध है.

दुधारू गाय का उचित मात्रा में ही बछड़े को दूध पिलाया जाता है अन्यथा उसे दस्त लग जायेंगे. शेष दूध मानव आदि के काम आता है.. यदि उस दूध को दुहा न जाये तो गाय को स्तनों में पीड़ा होगी..

वृक्ष मानव (जीव) उपयोग के लिये ही हैं.... लेकिन बिना विशेष कारण उन्हें समूल नष्ट कर देना अपराध है... इस दृष्टि से आपकी संवेदना सही है... आखिरकार जंगलों को साफ़ करके ही बस्तियाँ बसती हैं... लेकिन सभ्य मनुष्य को सोचना होगा कि वह जंगलों की बस्तियाँ न उजाड़े... उनके वजूद से ही उनका खुद का वजूद है.

आपकी इस रचना पर बधाई..

Shreya said...

You have picked right topic. This is sad, urbanization is covering forests. Nice poem. :)

Dr.NISHA MAHARANA said...

bahut shi bat khi prakash jee kavita ke madham se.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

खत्म होते जंगल पर आपकी संवेदना प्रभावित करती है। कोष..कोस

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