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Thursday, September 8, 2011

मिलना - बिछुड़ना



मिलना - बिछुड़ना

जिंदगी से आज हमें एक शिकायत करनी है
मिलने-बिछुड़ने कि बातें, थोडी बगावत करनी है.

क्यों मिलते हैं लोग नए, भिन्न-भिन्न रोजाना ?
उनमे से कुछ आते करीब क्यूँ, जरा बतलाना ?

बातें-मुलाकातें, हंसी-मजाक, सुनहरे लम्हों का जमाना
मिलने को करते बहाने, ये रिश्ता अजब-अनजाना

अचानक सहसा एकदिन हमको बिछुड़ना पड़ता है
माना ये नहीं अंत जीवन का, पर क्यूँ बिछुड़ना पड़ता है

इस मिलने बिछुड़ने में हमने, न जाने कितने गम झेलें हैं
इतने लोग मिले फिर भी, हम हरदम रहे अकेले हैं

आज कहतें हैं जिंदगी से, अब न किसीसे मिलाना
अगर मिले भी कोई तो, कभी करीब न लाना

तेरा क्या है ? तू मिलाकर चल देती है, हमको पड़ता है पछताना,
ये बात है गंभीर जरा, न इसे कभी भुलाना
अब न किसीसे मिलाना ...............

This one written around two years back, very accurate one with reference to current life scenario.
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