बूँदें
कभी बौछार बन के
मंद हवा में लहलहाती हुई
टेढ़ी-मेढ़ी, नुकीली सी, चुभती भी हैं
टेढ़ी-मेढ़ी, नुकीली सी, चुभती भी हैं
किसी को छत पर तो, किसी को छत में
जाने को मजबूर करती हैं
मिटटी कि भीनी खुशबू
पंछियों का मधुर कलरव
रास्तों पर थोड़े-थोड़े पानी में छपछपाते बच्चे
किनारे पर टहलते वृद्ध दम्पति
एक नयी उमंग है सबमे सावन के आने कि
उधर दूर कहीं अंगड़ाई लेता यौवन
बूंदों के आलिंगन से पुलकित होता हुआ
झूमता हुआ,
सब कुछ कितना खुशनुमा है, रोमांचित है
पर इन्ही बूंदों का तांडव बड़ा भयानक होता है
मुशलाधार बन कर जब ये बरसती हैं
कितना विरोधाभासी अनुभव है
हर तरफ पानी, जल-प्रलय
डूबते हुवे घर-सामान
और उनमे बहते व् टूटते सपने
बर्षों का परिश्रम पल में विलीन हो जाता है
उपलब्ध ऊँचाइयों पर रोते बच्चे,
दर्द से कराह रहे वृद्ध
फसल उजडती देखता किसान
हर किसी ने कुछ-ना-कुछ खोया है
कुदरत के सौंदर्य जितना रसपूर्ण है
उसका प्रकोप उतना ही नीरस व् गमगीन है
Theme By: Ms.Vishwa
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