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Tuesday, May 17, 2011

ख्यालों के जंगल...

ख्यालों के जंगल 

कितने घनें और विशाल हैं ये 
हर तरफ ऊँचाइयों को चुमते 
कुछ नाटे-चौड़े से 
तो कुछ पौधों से नव-पुलकित 

कुछ लताओं से लिपटे हुए, दूर तक 
उलझे हुए हरतरफ 
जिनका अंत ढूँढना कठिन है 

कहीं इतने भयानक हैं कि डर लगने लगता है
आवाजें सुनाई देती हैं मन की

कि इन में खोनें पर 
खुद को भी ढूंढ पाना मुश्किल है 
ये हैं 
ख्यालों के जंगल 

Saturday, May 14, 2011

लफ्ज़ कागज पे जो बिठाये हैं...













लफ्ज़ कागज पे जो बिठाये हैं 
बड़ी ही मुश्किल से बैठ पाएं हैं

पहले उलझे रहे ये दिल में 
और फिर ख्यालों में छटपटायें हैं 

ना जाने की कितनी मसक्कत 
व काटा- पिटी
फिर कहीं कलम से दिशा पाए हैं

सोते, जागते, हँसते, गाते व् बोलते 
तो कभी खामोश ये 
तनहाइयों में एकतरफा झुंझलायें हैं

खुले कागज़ से बंध डायरी तक 
तो कभी कंप्यूटर पे बने चिठ्ठों (ब्लॉग) तक 

कभी तुमने पढ़े 
तो कभी हमने दोहराए हैं 

लफ्ज़ कागज पे जो बिठाये हैं 

Friday, May 6, 2011

बिखरे तिनखे...

तिनखे हम भी जुटाते थे
एक घोंसला बनाने को 
कुछ नुकीले से, कुछ कोमल से 
कुछ टेढ़े-मेढ़े, 
तो कुछ बेनमून
काफी वक़्त लगता था 
उन्हें ढूँढने में, जुटानें में

एक सपना जुड़ा था उन से 
खुशनुमा जीवन का, घर-संसार का 

पर आज तिनखे बिखर चुकें हैं 
अब जब कि घोंसला बनानेवाला ना रहा 
सच कहूँ, 
उनका नुकीलापन अब चुभता है, 
डसता है  

अब ना आरज़ू रही वो,
ना हौंसला रहा 
तिनखे जुटाने को 
वो सपनो का घोंसला बनाने को...

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