दो गजलों के बीच के क्षणोंमें चूमा है तुझे
सुबह में पर्वतों के पीछे,तो दोपहर झीलों में
साँझ ढले पंछियों के घोसलों में चूमा है तुझे
सच कहूँ तो ये गिनती यूँ ही नहीं पक्की
दो और दो होठों की जोड़ में चूमा है तुझे
काली रातों में छुप के गजलों की आड़ में
पाँच-दस पंक्तियों के उजाले में चूमा है तुझे
लोगों ने जहाँ न पैर रखने को कहा
उन्ही गलियों से गुजरते हुए चूमा है तुझे
पलकें मूंदो और खोलो उन पलों में
जो देर बहुत लगे तो बीच में चूमा है तुझे
भावानुवाद-
प्रकाश
- उपयुक्त कविता मूल गुजराती कवि श्री मुकुल चोकसी की कविता का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद है.
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