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Monday, March 8, 2010

सुख का पता...













सुख का पता कोई कह दो...
जीवन के इक पन्ने पर इसका नक्शा कोई कह दो
सुख का पता कोई कह दो...

सबसे पहले ये समझाओ की निकलना है कहाँ से ?
किस तरफ है आगे बढ़ना, मुड़ना है कहाँ से ?
उसके घर का रंग है क्या, है छत कहाँ ये कह दो;

सुख का पता कोई कह दो...

चरण उठा दौडूँ साथ, खुलीं आँखें रख कह दो;
छुपा अगर आकाश में हो तो, पंख फैलाऊं कह दो;
मिलता जो हो सागर के बीच तो पतवार बहाऊं कह दो;
सुख का पता कोई कह दो...

कितने गाँव, जोजन, फलांग, कितना दूर है कह दो;
इक डग मारूं या मारूं छलांग, कितना दूर है कह दो;
मन और मृगजल के बीच का अंतर ये कह दो;
सुख का पता कोई कह दो...
प्रकाश  जैन 

जरुरी टिपण्णी: 
ऊपर कि कविता श्री श्यामल मुनशी द्वारा रचित गुजराती कविता "सुखनु सरनामु आपो...(સુખનું સરનામું આપો)  का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद प्रयास है. मूल गुजराती कविता कुछ इस तरह से है:

સુખનું સરનામું આપો...
જીવનના કોઈ એક પાના પર એનો નકશો છાપો;
સુખનું સરનામું આપો...

સૌથી પેહલા એ સમઝાઓ ક્યાંથી નીકળવાનું ?
કઈ તર આગળ વધવાનું ને ક્યાં-ક્યાં વળવાનું ?
એના ઘરનું રંગ કયો છે, ક્યાં છે એનો ઝાંપો ?

સુખનું સરનામું આપો...


ચરણ લઈને દોડું સાથે ખુલ્લી રાખું આંખોં;
ક્યાંક છુપાયું હોય આભમાં તો ફૈલાવું પાંખો;
મળતું હોય જો મધદરિયે તો વહેતો મુકું તરાપો;
સુખનું સરનામું આપો...


કેટલા ગાઉ, જોજન, ફલાંગ, કહો કેટલું દૂર;
ડગ માંડું કે મારું છલાંગ, કહો કેટલું દૂર;
મન અને મૃગજળ વચ્ચેનું અંતર કોઈ માપો;
સુખનું સરનામું આપો...
-
શ્યામલ મુનશી 

Thursday, March 4, 2010

जीवन आतिशबाजी सा...



                                            

जीवन आज आतिशबाजी सा होता जा रहा, 
चमक रहा, भड़क रहा, ओझिल होता जा रहा


रिश्तों में मिठास लुप्त हो चुकी कहीं, 
हर कोई अपने ही स्वार्थ को सुलझा रहा 
व्यापार में ईमानदारी नहीं देखने मिलती,
प्रतियोगिता कर हर कोई प्रतिद्वंदता बढा रहा 
राजनीती खेल कुर्सी का, पार्टियाँ सहारा,
मिल-जुलकर नेता देश को खोखला बना रहा 
भ्रष्टाचार व्यापक हुआ है आज हर तरफ, 
'चोर-चोर मौसेरा भाई', एक दूजे को निभा रहा 
समाज बना सुशिक्षित और समझदार पहले से बहुत, 
पर कुछ निक्कमों कि वजह से बदनाम होता जा रहा 
शांति के चाहक सभी करते भाईचारे कि बातें,
फिर भी हिंसा-आतंक को कौन रोक पा रहा?
इंसानियत दिखाने को करने पड़ रहे प्रदर्शन 
मनुष्य क्यूँ आज इतना क्रूर होता जा रहा ?   

जीवन आज आतिशबाजी सा होता जा रहा...
-
प्रकाश जैन 
४.३.१०
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