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Sunday, November 8, 2009

प्रकृति का क्या कहे...








प्रकृति का क्या कहे, एक अजब अफसाना है
कण - कण में एक नाता, जाना- पहचाना है
दिन के उजाले की, बागडोर संभाली सूरज नें,
निशा की चांदनी को, हमने चांद से जाना है

हरदम बहते रहकर, हर प्यास को बुझाना है
नदी की ये कर्मठता, उसे सागर से मिल जाना है
धीर- गंभीर, अडिग खडे रहते है जो हरदम
उन पहाडो- चोटीयो को आसमा से मिल जाना है

लदे भले ही रेहते हॉ, पर झुकने का नाम नही
वृक्ष जो छाया देते है, उनको कभी आराम नही
जिन मोहक पुष्पो से बनता, हर मौसम आशिक़ाना है
उन्हे खिलना कांटो के बीच, पर जीवन को मेह्काना है

हरियाली खडी फसल की, देखने ही बनती है
पर भूख मिटाने जीवन की, इसको कट जाना है
पशु और पक्षीयो के सौंदर्य का कौन नही दिवाना है
उनका सिर्फ एक लक्ष्य, बस चहकते जाना है

शब्दो की कमी मेहसूस हुई, ऐसा अजब फसाना है
मौसम बदले, वक़्त बदला, पर इन्सा बेगाना है
देरी अब जो की तो, पड सकता पछ्ताना है
प्रयास हमे मिल करना है, प्रकृति को नष्ट होने से बचाना है ..
-
प्रकाश जैन
६.११.०९









Image courtesy: Ms.Meghna Bhatt

4 comments:

kishore ghildiyal said...

waah is prakriti ke kya kehne ati sundar

संजय भास्‍कर said...

एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

meghna said...

too good. beautiful

Unknown said...

वाह बहोत ही खूब !प्रकाश आप ने प्रकृति
की बारीकियो का जिस सुक्ष्मता के साथ आलेखित किया है वह काबिले दस हैं !!

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