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Monday, June 22, 2009

बुढापा,,,,एक व्यंग

जैसे जैसे ये है करीब आता,
मनुष्य का शारीरिक ढाँचा बिगड़ता ही जाता
मनुष्य बनता संवेदनशील, पर खो देता दिमागी आपा

नई-नई लगती बीमारी,
दाँत है गिर जाते, पेट हो जाता भारी,
आँखों से बराबर दिख नहीं पाता,
कानों में बहरेपन का असर छा जाता
सिर से बालों का जमावडा उड़ जाता
फिर भी आदमी कंघी की लत को दोहराता

यह होता है समय ऐसा,
जब मनुष्य अपने आप को अपने पुत्र-पुत्रियों के बीच है पाता
अपनी संतानों के साथ भले न हो खेला कभी
मगर उनको जरुर है खिलाता
उनके बीच अपने आप को बच्चा सा बनाता

इस बीच अगर घर के माहोल में सुख-शांति हो तो ठीक
वरना बुढौती पे कहर है छा जाता
और कई बार इन सब का कारण वो खुद बन जाता
परिणाम स्वरुप ये है पाया जाता
कि इक संयुक्त परिवार ताश के पत्तों कि तरह टूट जाता
और वृद्ध का जीवन बिन चक्के कि गाड़ी सा हो जाता

नई पीढी, नए युग, नए विचारों के तले, वह है दब जाता
और फिर वो अपनी कहानी दूसरों को है सुनाता
भले खुद रहा हो जीवन में असफल
पर अपनी सफलता कि सुई सभी को चुभाता
आधुनिक जीवन कि सुनामी में वो है डूब जाता, टूट जाता

लेकिन ये भी है एक क्रूर सच
कि हर इंसान के जीवन में एक दिन बुढापा
आता, आता.............. और जरुर है आता




Disclaimer Note:
This above poetry is not to hurt any elder neither to deny the respect for old, but just with a few self-experiences in life and observation had written this one long back. Not to be taken in other ways. 

1 comments:

Keyur said...

Kabhi na Kabhi ise to hai aana ,
Prakashbhai, achha laga aap ka abhi se ahesas karana!!!!!

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